मनोवांछित फल प्राप्ति हेतु सिद्ध स्तोत्र
हमारे श्रद्धालु पाठकों के लिए कुछ सिद्ध स्तोत्र दिए जा रहे हैं। अनुष्ठानपूर्वक इनका स्तवन करने से मनोवांछित फल शीघ्र प्राप्त होते हैं।
अनुष्ठान के संबंध में विनम्र सुझाव यह है कि मनोवांछित फल प्राप्त करने हेतु अनुष्ठानकर्ता भगवान श्री गणेश की प्रतिमा के सामने अथवा किसी मंदिर में अथवा किसी पुण्य क्षेत्र अथवा भगवान श्री गणेश के चित्र के सम्मुख बैठकर अनुष्ठान कर सकते हैं। अनुष्ठानकर्ता पवित्र स्थान में पवित्र एवं शुद्ध आसन पर बैठकर विभिन्न उपचारों से श्री गणेश का पूजन करें।
श्रद्धा एवं विश्वास के साथ मनोवांछित फल प्रदान करने वाले चयनित स्तोत्र का न्यूनतम 21 बार पाठ करें। यदि अधिक बार कर सकें तो श्रेष्ठ। प्रातः एवं सायंकाल दोनों समय करें, फल शीघ्र प्राप्त होता है।
कामना पूर्ण हो जाने तक पाठ नियमित करते रहना चाहिए। कुछ एक अवसरों पर पूर्व जन्म के संचित प्रतिबंधक रूप प्रारब्ध की प्रबलता की वजह से मनोवांछित फल की प्राप्ति या तो देरी से हो पाती है अथवा यदाकदा फल प्राप्त ही नहीं होते हैं।
फल प्राप्ति के अभाव में विज्ञ विद्वान, ज्योतिषी अथवा संत की शरण लेकर मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए, न कि अविश्वास व कुशंका करके आराध्य के प्रति अश्रद्धा व्यक्त करना चाहिए।
भगवद्-आराधन व्यर्थ नहीं जाता। श्रद्धा और विश्वास के साथ मन की एकाग्रता से अनुष्ठान करने पर स्वयं अनुभूति एवं फल प्राप्ति निश्चित है।
मंगल विधान के लिए :
गणपतिर्विघ्नराजो लम्बतुण्डो गजाननः।
द्वैमातुरश्च हेरम्ब एकदन्तो गणाधिपः॥
विनायकश्चारुकर्णः पशुपालो भवात्मजः।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्॥
विश्वं तस्य भवेद्वश्यं न च विघ्नं भवेत् क्वचित्।
(पद्म पु. पृ. 61।31-33)
द्वैमातुरश्च हेरम्ब एकदन्तो गणाधिपः॥
विनायकश्चारुकर्णः पशुपालो भवात्मजः।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्॥
विश्वं तस्य भवेद्वश्यं न च विघ्नं भवेत् क्वचित्।
(पद्म पु. पृ. 61।31-33)
'गणपति, विघ्नराज, लम्बतुण्ड, गजानन, द्वैमातुर, हेरम्ब, एकदन्त, गणाधिप, विनायक, चारुकर्ण, पशुपाल और भवात्मज- ये बारह गणेशजी के नाम हैं। जो प्रातःकाल उठकर इनका पाठ करता है, संपूर्ण विश्व उनके वश में हो जाता है तथा उसे कभी विघ्न का सामना नहीं करना पड़ता।'
मोक्ष प्राप्ति के लिए :
॥ पंचश्लोकिगणेशपुराणम् ॥
श्रीविघ्नेशपुराणसारमुदितं व्यासाय धात्रा पुरा
तत्खण्डं प्रथमं महागणपतेश्चोपासनाख्यं यथा।
संहर्तुं त्रिपुरं शिवेन गणपस्यादौ कृतं पूजनं
कर्तुं सृष्टिमिमां स्तुतः स विधिना व्यासेन बुद्धयाप्तये॥
तत्खण्डं प्रथमं महागणपतेश्चोपासनाख्यं यथा।
संहर्तुं त्रिपुरं शिवेन गणपस्यादौ कृतं पूजनं
कर्तुं सृष्टिमिमां स्तुतः स विधिना व्यासेन बुद्धयाप्तये॥
संकष्टयाश्च विनायकस्य च मनोः स्थानस्य तीर्थस्य वै
दूर्वाणां महिमेति भक्तिचरितं तत्पार्थिवस्यार्चनम्।
तेभ्यो यैर्यदभीप्सितं गणपतिस्तत्तत्प्रतुष्टो ददौ
ताः सर्वा न समर्थ एव कथितुं ब्रह्मा कुतो मानवः॥
दूर्वाणां महिमेति भक्तिचरितं तत्पार्थिवस्यार्चनम्।
तेभ्यो यैर्यदभीप्सितं गणपतिस्तत्तत्प्रतुष्टो ददौ
ताः सर्वा न समर्थ एव कथितुं ब्रह्मा कुतो मानवः॥
क्रीडाकाण्डमथो वदे कृतयुगे श्वेतच्छविः काश्यपः।
सिंहांकः स विनायको दशभुजो भूत्वाथ काशीं ययौ।
हत्वा तत्र नरान्तकं तदनुजं देवान्तकं दानवं
त्रेतायां शिवनन्दनो रसभुजो जातो मयूरध्वजः॥
सिंहांकः स विनायको दशभुजो भूत्वाथ काशीं ययौ।
हत्वा तत्र नरान्तकं तदनुजं देवान्तकं दानवं
त्रेतायां शिवनन्दनो रसभुजो जातो मयूरध्वजः॥
हत्वा तं कमलासुरं च सगणं सिन्धु महादैत्यपं
पश्चात् सिद्धिमती सुते कमलजस्तस्मै च ज्ञानं ददौ।
द्वापारे तु गजाननो युगभुजो गौरीसुतः सिन्दुरं
सम्मर्द्य स्वकरेण तं निजमुखे चाखुध्वजो लिप्तवान्॥
पश्चात् सिद्धिमती सुते कमलजस्तस्मै च ज्ञानं ददौ।
द्वापारे तु गजाननो युगभुजो गौरीसुतः सिन्दुरं
सम्मर्द्य स्वकरेण तं निजमुखे चाखुध्वजो लिप्तवान्॥
गीताया उपदेश एव हि कृतो राज्ञे वरेण्याय वै
तुष्टायाथ च धूम्रकेतुरभिधो विप्रः सधर्मधिकः।
अश्वांको द्विभुजो सितो गणपतिर्म्लेच्छान्तकः स्वर्णदः
क्रीडाकाण्डमिदं गणस्य हरिणा प्रोक्तं विधात्रे पुरा॥
तुष्टायाथ च धूम्रकेतुरभिधो विप्रः सधर्मधिकः।
अश्वांको द्विभुजो सितो गणपतिर्म्लेच्छान्तकः स्वर्णदः
क्रीडाकाण्डमिदं गणस्य हरिणा प्रोक्तं विधात्रे पुरा॥
एतच्छ्लोकसुपंचकं प्रतिदिनं भक्त्या पठेद्यः पुमान्
निर्वाणं परमं व्रजेत् स सकलान् भुक्त्वा सुभोगानपि।
निर्वाणं परमं व्रजेत् स सकलान् भुक्त्वा सुभोगानपि।
॥ इति श्रीपंचश्लोकिगणेशपुराणम् ॥
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने व्यास को श्री विघ्नेश (गणेश) पुराण का सारतत्व बताया था। वह महागणपति का उपासनासंज्ञक प्रथम खण्ड है। भगवान शिव ने पहले त्रिपुर का संहार करने के लिए गणपति का पूजन किया। फिर ब्रह्माजी ने इस सृष्टि की रचना करने के लिए उनकी विधिवत स्तुति की। तत्पश्चात व्यास ने बुद्धि की प्राप्ति के लिए उनका स्तवन किया।
संकष्टी देवी की, गणेश की, उनके मंत्र की, स्थान की, तीर्थ की और दूर्वा की महिमा यह भक्तिचरित है। उनके पार्थिव विग्रह का पूजन भी भक्तिचर्या ही है। उन भक्तिचर्या करने वाले पुरुषों में से जिन-जिन ने जिस-जिस वस्तु को पाने की इच्छा की, संतुष्ट हुए गणपति ने वह-वह वस्तु उन्हें दी। उन सबका वर्णन करने में ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या।
'क्रीडाकाण्ड' का वर्णन- सत्ययुग में दस भुजाओं से युक्त श्वेत कान्तिमान कश्यप पुत्र सिंहध्वज महोत्कट विनायक काशी में गए। वहां नरान्तक और उसके छोटे भाई देवान्तक नामक दानव को मारकर त्रेता में वे षड्बाहु शिवनन्दन मयूर ध्वज के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने कमलासुर को तथा महादैत्यपति सिन्धु को उसके गणों सहित मार डाला। तत्पश्चात ब्रह्माजी ने सिद्धि और बुद्धि नामक दो कन्याएं उन्हें दीं और ज्ञान भी प्रदान किया।
द्वापर युग में गौरीपुत्र गजानन दो भुजाओं से युक्त हुए। उन्होंने अपने हाथ से सिन्दूरासुर का मर्दन करके उसे अपने मुख पर पोत लिया। उनकी ध्वजा में मूषक का चिह्न था। उन्होंने संतुष्ट राजा वरेण्य को गणेश गीता का उपदेश किया। फिर वे धूम्रकेतु नाम से प्रसिद्ध धर्मयुक्त धन वाले ब्राह्मण होंगे। उस समय उनके ध्वज का चिह्न अश्व होगा। उनके दो भुजाएं होंगी। वे गौरवर्ण के गणपति म्लेच्छों का अन्त करने वाले और सुवर्ण के दाता होंगे। गणपति के इस 'क्रीडाकाण्ड' का वर्णन पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी से किया था।
जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिभाव से इन पांच श्लोकों का पाठ करेगा, वह समस्त उत्तम भोगों का उपभोग करके अन्त में परम निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होगा।
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