धन और ध्यान दोनों को साधिए
हमारे मन में हमेशा यह उलझन रहती है कि धन और ध्यान में क्या साधे और क्या छोड़ दें? किस्सों कहानियों का ऐसा मायाजाल है कि धन और ध्यान में से किसे चुने और किसे छोड़ दें इसका निर्णय कभी कर ही नहीं पाते. दिन रात माया के आगोश में जीते हैं और हमेशा उससे बाहर निकलने की कोशिश भी करते रहते हैं. सुबह से शाम तक धन की व्यवस्था को चलाते हैं लेकिन उसे कभी स्वीकार नहीं कर पाते. इसका असर यह होता है कि हमारे अंदर एक द्वंद निर्मित हो जाता है. हमें ऐसा लगता है कि धन और ध्यान दो अलग-अलग बातें हैं.
मैं बोलता हूं इस चक्कर में कभी पड़ना मत कि धन आयेगा तो ध्यान चला जाएगा. या फिर ध्यान रहेगा तो धन नहीं आयेगा. मैं तो बोलता हूं ध्यान के आसन पर बैठकर धन की साधना करना. धन इस लोक का पुरूषार्थ है. अगर धन नहीं आया तो जीवन व्यर्थ चला गया. इसलिए धन से कभी भागना मत. उसका कभी तिरस्कार मत करना. ध्यान के आसन पर बैठकर धन की उपासना करना. भारत में लक्ष्मी उपासना हम सब करते ही हैं. अगर धन इतना तिरस्कार योग्य होता तो लक्ष्मी जी की आराधना का विधान नहीं होता. फिर सवाल मन में आता है कि धन को माया की संज्ञा देकर इसका निषेध क्यों किया गया है?
असल में धन धर्म मार्ग से आना चाहिए. अगर धर्म मार्ग से धन आता है तो वह ध्यान है. लेकिन अधर्म मार्ग के प्राप्त किया गया धन और साधन दोनों ही विकार की भांति है. इसलिए अगर ध्यान साध लिया है तो धन को भी साधो. तब जो धन तुम अर्जित करोगे वह धन धर्म की भांति योग्य धन होगा. एक और सावधानी रखनी चाहिए. धन कभी अपने लिए अर्जित नहीं करना चाहिए. मेरी धारणा है कि धन हमेशा दूसरों के लिए अर्जित करना चाहिए. वे दूसरे तुम्हारे अपने परिवार के लोग भी हो सकते हैं या फिर आसपास के लोग भी हो सकते हैं. कभी भी सिर्फ अपनी सुख-सुविधा के लिए धन के पीछे नहीं भागना चाहिए.
धन कमाओ हमेशा दूसरों के लिए. अपने लिए हमेशा ध्यान को प्राप्त करो.
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